Establishment of Garhwal Rifle : गढ़वाल राईफल की स्थापना

गौरवशाली सैन्य परम्पराओ का ऐतिहासिक गवाह रहा है समूचा उत्तराखंड । 5 मई 1887 को आज ही के दिन  ले.कर्नल EP मानवारिग ने गढ़वाल राईफल की स्थापना की और 4 नवम्बर 1887 को गढवाल राइफल्स का मुख्यालय कालौंडांडा(जिसे अब लैन्सडाउन के नाम से जाना जाता है) मे स्थापित किया।

गढ़वाल राईफल के स्थापना दिवस पर लाट सूबेदार बलभद्र सिंह को नमन/सैल्यूट करते हुए प्रस्तुत है ए आलेख...साझा कर रहा हूं..

गढ़वाल की सैन्य परंपरा का प्रारम्भिक महानायक- लाट सूबेदार बलभद्र सिंह नेगी (सन् 1829 – 1896)

‘जिस अंचल में बलभद्र सिंह जैसे वीरों का जन्म होता है, उसकी अपनी अलग रेजीमेंट होनी ही चाहिए।’ कमान्डर इन चीफ, पी. रोबर्टस ने सन् 1884 में तत्कालीन गर्वनर जनरल लार्ड डफरिन को गढ़वालियों की एक स्वतंत्र बटालियन के गठन के प्रस्ताव की भूमिका में ये महत्वपूर्ण तथ्य लिखा था।

‘गढ़वाल राईफल’ के गठन का मुख्य सूत्रधार

तत्कालीन बिट्रिश सरकार ने 5 मई, सन् 1887 में अल्मोड़ा में तैनात गोरखा राईफल में भर्ती गढ़वाली एवं अन्य सैनिकों को मिलाकर ‘गढ़वाल राईफल’ का गठन करके उसका मुख्यालय ‘कळों का डांडा’ (लैंसडौन) में स्थापित किया था। इससे पूर्व गढ़वाल के युवा गोरखा राईफल में ही भर्ती हो पाते थे।

‘गढ़वाल राईफल’ के गठन का मुख्य सूत्रधार लाट सूबेदार एवं ऑनरेरी कैप्टन बलभद्र सिंह नेगी को माना जाता है। पांचवी गोरखा राईफल में एक सामान्य सिपाही से लाट सूबेदार (उस काल में भारतीय सैनिकों का सर्वोच्च पद) बनने तक का उनका शानदार सैनिक सफर उत्कृष्ट साहस, दूरदर्शिता और कर्तव्य परायणता का रहा। उनकी अदम्य साहसिक सैनिक सेवाओं का उल्लेख लंदन गजेटियर में दर्ज है। सैनिक सेवाओं के दौरान उन्हें दो बार ‘ऑडर ऑफ मेरिट’ का अवार्ड दिया गया। सन् 1887 में सेना से अवकाश ग्रहण करने के बाद बिट्रिश सरकार ने उनकी सराहनीय सैनिक सेवाओं का सम्मान करते हुए घोसीखाता (कोटद्वार) में 302 एकड़ भूमि सम्मान स्वरूप निःशुल्क प्रदान की और इस जगह को बलभद्रपुर नाम दिया।

एक नज़र में लाट सूबेदार बलभद्र सिंह नेगी

लाट सूबेदार बलभद्र सिंह नेगी का जन्म सन् 1829 में गलकोट, असवालस्यूं (पौड़ी गढ़वाल) में हुआ था। इनके पिता धन सिंह नेगी असवालस्यूं पट्टी के आजीवन पटवारी रहे। (बलभद्र सिंह के दादा चन्द्र सिंह नेगी असवालस्यूं पट्टी के सीरौं गांव से महड़ (म्वाड़) आकर बस गए थे। उनके पिता धन सिंह नेगी म्वाड़ से गलकोट में रहने लगे। इसी परम्परा को निभाते हुए बलभद्र सिंह सेना से अवकाश ग्रहण करने के बाद गलकोट के नजदीकी गांव हैड़ाखोली में जाकर बस गए। उन्होने हैडाखोली की जमीन-जायजाद को नगर गांव के किसी असवाल ठाकुर से ‘एक पाथा दो माणा’ (अनाज नापने का बर्तन) को कलदार सिक्कों से भर कर खरीदा था।)


गढ़वाल में अंग्रेजी शासन ( सन् 1815-16 ) शुरू होने के साथ ही सेना में भर्ती होने का सिलसिला भी आरंभ हो गया था। अंग्रेजों ने सन् 1816 में गोरखा, गढ़वाली और कुमाऊंनी युवाओं की ‘नसीरी सिरमोर कुमाऊं बटालियन’ बनाई। आम भाषा में इसे ‘खिचड़ी पलटन’ कहा जाता था। बाद में इसे ‘गोरखा राईफल’ नाम दिया गया।


अंग्रेज मूलतः पहाड़ी इलाकों के वाशिंदे थे। इस कारण गढ़वाल-कुमायूं के पहाड़ों से उनका आत्मीय लगाव होना स्वाभाविक था। पहाड़ियों का संघर्षमयी जीवन, उत्तम स्वास्थ्य और ईमानदारी का फायदा वे उन्हें सेना में भर्ती करके लेना चाहते थे। उन्नीसवीं शताब्दी के चौथे दशक में गढ़वाल के युवाओं का सेना में भर्ती होना आम बात हो गई थी।

नेगी की जिंदगी की जदोजहद

युवा बलभद्र भी इसी चाहत में एक दिन चुपचाप अपने गांव गलकोट से सेना में भर्ती होने के लिए जीवन की अनजानी राहों पर चल पड़े। कई दिनों के बाद भूलते-भटकते रास्तों में चलते-चलते मिलने वाले अनजान लोगों के साथ वह कोटद्वार और वहां से रुड़की पहुंचे। रुड़की से गोरखा युवाओं के साथ पैदल चलकर अनेक मुसीबतें झेलते हुए वे पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत एबटाबाद पहुंचे और उन्हीं के साथ गोरखा बटालियन में भर्ती की लाइन में खड़े हो गए। स्वस्थ्य कद-काठी के बल पर उनका सैनिक बनने का सपना पूरा हो गया। अब वे 2/5 गोरखा बटालियन के सैनिक बनकर गोरखा रंगरूटों के साथ एबटाबाद में सैनिक प्रशिक्षण लेने लगे। यह सन् 1847 की बात थी।

बलभद्र सिंह का अदभुत पराक्रम और समझ-बूझ

एक जाबांज सैनिक के गुणों का परिचय देते हुए बलभद्र सिंह अपने अन्य साथियों के मुकाबले बहुत कम समय में ही सूबेदार बन चुके थे। सन् 1879 के कन्धार युद्ध में बलभद्र सिंह ने अदभुत पराक्रम और समझ-बूझ का परिचय दिया था। सेनानायक पी. राबर्टस की योजनानुसार वे पठान भेष में दुश्मन के इलाके में सात दिनों तक जासूसी करते रहे। वहां वे अपनी बटालियन के मृत सैनिक साथियों के बीच मुर्दा बनकर अफगानी सेना के सारे भेद लेते रहे और चतुराई से सात दिन बाद वापस अपनी बटालियन में सुरक्षित आ गए। बलभद्र सिंह की पुख्ता खुफिया जानकारी के आधार भारतीय सेना इस युद्ध में विजयी हो पाई थी। उनके इस साहसिक अभियान से भारतीय सेना के लापता कई मृतक सैनिकों का मृत्यु संस्कार संभव हो पाया था। कंधार युद्ध में विजयश्री दिलाने में महत्वपूर्ण योगदान के लिए बलभद्र सिंह को ‘आर्डर ऑफ मेरिट’ सम्मान दिया गया। साथ ही सूबेदार के पद पर इनकी प्रौन्नति की गई।

कंधार युद्ध के तुुरंत बाद सन् 1880 में काबुल युद्ध में भी इन्होने अपना शौर्य प्रर्दशित किया। माथे पर गोली लगने के बाद भी ये कई दिनों तक युद्ध के मोर्चे पर डटे रहे। काबुल युद्ध में असाधारण साहस के सम्मान में सूबेदार बलभद्र सिंह को पुनः ‘आर्डर ऑफ मेरिट’ सम्मान मिला था। सम्मान का यह सिलसिला थमा नहीं और इनको कमाण्डर-इन-चीफ का ‘सर्वोत्तम सैनिक पदक’ और ‘आर्डर ऑफ ब्रिट्रिश इंडिया’ सम्मान से भी नवाजा गया। साथ ही सूबेदार-मेजर के पद पर इनकी प्रौन्नति की गई।

(गढ़वालियों में सूबेदार मेजर बनने का पहला श्रेय बलभद्र सिंह नेगी (असवालस्यूं) और मोती सिंह नेगी (बचणस्यूं) को है।)
तत्कालीन कमाण्डर-इन-चीफ लाॅर्ड रोबर्टस सूबेदार-मेजर बलभद्र सिंह से इतने प्रभावित थे कि उन्होने इनके लिए एक नवीन पद का सृजन कर गर्वनर जनरल लार्ड डफरिन का अगंरक्षक (एडीसी) नियुक्त कर दिया था। अब जन सामान्य में बलभद्र सिंह ‘सरदार बहादुर’ और ‘लाट सूबेदार’ नाम से लोकप्रिय होने लगे। चार साल गर्वनर जनरल लार्ड डफरिन का अगंरक्षक (एडीसी) रहने के बाद सन् 1885 में बलभद्र सिंह सेना अवकाश ग्रहण करने के बाद अपने गांव ‘गलकोट’ वापस आकर कर सामान्य जीवन बिताने लगे। कुछ समय बाद हैड़ाखोली गांव में जमीन-जायदाद खरीद वहां रहकर खेती-किसानी करने लगे।

सेवा निवृत के बाद भी ‘गढ़वाल रेजीमेंट’ स्थापना के प्रयास

बलभद्र सिंह जी ने पेंशन आने के बाद ‘गढ़वाल रेजीमेंट’ स्थापना के प्रयास जारी रखे। उसका परिणाम यह हुआ कि सन् 1887 में ‘गढ़वाल रेजीमेंट’ अस्तित्व में आ ही गई। अब वे गढ़वाल के युवाओं को सेना में भर्ती होने के लिए प्रेरित करने के अभियान में जुट गए। बलभद्र सिंह जी ख्याति और अनुभवों का सम्मान करते हुए उन्हें आजीवन ‘गढ़वाल डिस्ट्रिक बोर्ड’ का मनोनीत सदस्य बनाया गया था।


मार्च, 1896 में एक यात्रा के दौरान गुमखाल-रैतपुर गांव के ‘बदडू का पानी’ के पास एक चौड़े पत्थर में संध्या वंदन करते हुए ऊपर पहाड़ी से गिरे पत्थर से बुरी तरह घायल हुए। उनको सैनिक अस्पताल लैंसडौन में भर्ती कराया गया परन्तु उपचार के दौरान ही बलभद्र सिंह जी का निधन हो गया।

नेगी का अपने पुत्र के नाम सन्देश


बलभद्र सिंह जी के पराक्रम का ही प्रभाव था कि उनके बड़े पुत्र अमर सिंह नेगी को सीधे वायसराय कमीशन मिला। बताते हैं कि सूबेदार-मेजर अमर सिंह के वर्मा युद्ध के दौरान गम्भीर रूप में घायल होने की सूचना जब बलभद्र सिंह को तार द्वारा मिली तो उन्होने प्रत्युत्तर तार में अपना यह प्रेरक संदेश लिखा कि ‘बेटा, घबराओ मत, तुम अगर बच गए तो नाम है और अगर तुम वीरगति प्राप्त हो गए तो भी तुम्हारा नाम होगा।’ सैनिक समर्पण का यह अतुलनीय उदाहरण है। आनरेरी कैप्टन बलभद्र सिंह नेगी की शौर्यपूर्ण सेवाओं को सम्मान देते हुए सन् 2003 में गढ़वाल राइफल रेजिमेंटल सेन्टर, लैन्सडौन ने एक भव्य आयोजन किया था।


यह भी महत्वपूर्ण है कि लाट सुबेदार बलभद्र सिंह जी के चारों पुत्रों ने सेना (आ. कैप्टेन) में अपनी उत्त्कृष्ट सेवायें दी और यह शानदार पारिवारिक सैन्य परम्परा अग्रेतर पीढ़ियों में आज भी जारी है। अमर सिंह जी के पुत्र आनन्द सिंह नेगी ने अपने दादाजी बलभद्र सिंह के अदम्य बल-बुद्धिपूर्ण कार्यों, गढ़वाल राइफल की स्थापना और अपने पारिवारिक सैनिक योगदान पर केन्द्रित आत्म-संस्मरण लिखे थे।

बलभद्र सिंह जी अदम्य बल एवं कुशाग्र बुद्धि वाले सेनापति की लोकप्रिय छवि के धनी थे, परन्तु इससे इतर मुझे उनके इस गुण ने भी बहुत प्रभावित किया कि देश-दुनिया में शोहरत और धन कमाने के वाद वे अपने गांव गलकोट और तत्पश्चात हैड़ाखोली में आकर आम खेती-किसानी का शालीन जीवन बिताने लगे। लाट सूबेदारी के रुतबे को तो उन्होने सेना से विदा होते ही विदाई दे दी थी।

विभिन्न सूत्रों से प्राप्त आलेखों और किताबों की सूचना के आधार पर

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